जय श्री राम ............| आदरणीय मित्रो, अब जो बात हम आपसे करने जा रहे हैं, यह करना तो 12-13 जून को चाहते थे, मगर अन्यान्य व्यस्तताओं के चलते कर नहीं पाये| इस बात के लिए तनिक अधिक फुर्सत की आवश्यकता भी थी| ......... बात यह है मित्रो कि हम ज्योतिषी हैं तो अपनी बात लोगों के बीच रखने के लिए, लोगों की बात सुनने के लिए और अपनी विधा के अधिकाधिक प्रचार-प्रसार के लिए ज्योतिष सम्मेलनों में सहभागिता भी किया करते हैं| हाँ, इतना अवश्य है कि चुनिन्दा सम्मेलनों में ही जा पाते हैं| कुछ परखे हुए आयोजनों में जाने में तो कोई हिचक नहीं रहती है, मगर कभी किसी नए आयोजन में भी सहभागिता कर लेते हैं| कारण कि आयोजकों की ओर से यह विश्वास दिलाया जाता है कि समस्त व्यवस्थाएँ बहुत अच्छी रहेंगी, साथ ही हमारी विधा को भी समुचित आदर-सत्कार दिया जाएगा| इसी भुलावे में हम कोटा में आयोजित ज्योतिष सम्मेलन में भाग लेने पहुँच गये|
'आल इंडिया फलौदी एस्ट्रोलोजिकल रिसर्च सोसायटी' (कोटा) के बैनर तले विगत 8-9-10 जून को कोटा के झालावाड रोड़ स्थित आई. एल. टाउनशिप के आई.एल.सभागार में 'सप्तम विश्व ज्योतिष, तंत्र, वास्तु एवं कर्मकांड महासम्मेलन' का आयोजन किया गया| आयोजकों ने बहुत अनुनय-विनय से जिन ज्योतिर्विभूतियों को बुलाया था, उनके सामने इस आयोजन के परखच्चे पहले दिन से भी पहले उड़ने शुरू हो गये| 07 जून की संध्या को पहुँचे ज्योतिषियों ने अपनी अपमानजनक अवस्था का एक सीन कुछ यूं बयान किया कि उस रात के भोजन के लिए आयोजकों ने आयोजन-स्थल कैम्पस में उन्हें किसी की शादी के आयोजन में घुसा दिया| बेचारे ज्योतिषी शादीवालों के यहाँ अपना अपमान सहन करते रहे (राम-राम)| आयोजन की व्यवस्थाओं की बदहाली का आलम तो यह था कि अधिकतर ज्योतिषियों को जानवरों को बाड़े में ठूंसे जाने की तरह एक गंदे-से और घटिया हॉल में डाल दिया गया| कुछ ज्योतिषियों को आस-पास के छात्रावासों के कमरों में ठहराया गया| वहाँ की व्यवस्थाओं का तो कहना भी क्या? पीने का पानी तो छोड़िए, नहाने-शौच के लिए भी पानी को लेकर जान हलक़ में आ गयी| सुनने में आया है कि तीसरे दिन तो पानी के लिए ज्योतिषियों को मोटर वाले कमरे का ताला तोडना पड़ गया| कमरे बिलकुल बदबूदार और कूलर तो ऐसे जैसे चलने का एहसान कर रहे हों| आयोजन जितने दिन का होता है, आयोजक उतने दिनों की व्यवस्थाएँ करने की ज़िम्मेदारी लेते हैं, मगर यहाँ तो बात ही कुछ 'निराली' थी| हमें तीन दिन की व्यवस्थाओं का कहा गया था, मगर तीसरे ही दिन शाम को पीने के पानी के लिए तरस गये थे| और तो और शाम होते-होते आयोजकों का यह 'फ़रमान' भी आ गया कि हम छात्रावास के कमरे खाली कर उस 'दड़बेनुमा हाल' में चले जाएँ| उन कमरों में ठहरे हम सभी ज्योतिषी अपमान का घूँट पी कर तत्काल वह जगह खाली कर वहाँ से निकल लिए, प्रभु से इस प्रार्थना के साथ कि ऐसे आयोजनों और आयोजकों का मुँह फिर कभी नहीं दिखाए|
अब यहाँ के बाद शुरू होता है अगला एपिसोड| लेकिन ज़रा ठहरिए| व्यस्थाओं के इस घटिया स्वरूप के बारे में इन शिकायतों को लेकर अगर आयोजक यह तर्क देने लगें कि भई, हमने तो सम्मेलन में सहभागिता करने वाले ज्योतिषियों से पंजीयन-शुल्क मात्र 250/- ही लिए, कोई बड़ी रक़म नहीं ली; तो यह तर्क बिलकुल बेकार है| पहला कारण तो यह कि ले लेते ज़्यादा पंजीयन-शुल्क, किसने रोका था? लेने वालों को तो ज्योतिषी 1500/- या 2100/- तक पंजीयन-शुल्क भी देते हैं, यहाँ भी दे देते,मगर सुविधाएँ तो ढंग की देते| बंधुआ मज़दूरों की तरह क्यों बर्ताव करते हो? अब दूसरा कारण यह कि आयोजकों को मिलने वाले धन में आयकर-मुक्ति वाला मामला भी है| इस कारण इन्हें अच्छे-खासे धन की प्राप्ति होती है| तब भला घर बुला कर ज्योतिषियों को घटिया व्यवस्थाओं से प्रताड़ित करने का क्या मतलब? आयोजन-स्थल शहर से इतना दूर था कि आम आदमी तो तीन दिन में कोई ग़लती या मजबूरी में ही आया था|
सभागार की मंचीय व्यवस्थाएँ तो बदहाली का पर्याय थीं| कहने को और प्रचारित करने को तो आयोजकों का यह 'सप्तम' (समझे क्या कुछ---'सातवाँ') आयोजन था, मगर हाल देख कर लग रहा था कि कोई नौसिखिया भी इनसे बेहतर कर लेगा| मंच अव्यवस्थाओं में डूबा था| 'सात बार वाले अनुभवी आयोजकों' का हाल तो इतना बुरा था कि एक सत्र में तो सत्र के अध्यक्ष का ही संबोधन सबसे पहले करवा लिया गया| वक्ताओं का कोई श्रेणीकरण नहीं था| जो आ रहा था, न जाने क्या बकवास कर रहा था| अधिकतर वक्ताओं ने या तो अपन गुणगान किया या फिर आयोजकों की चापलूसी| विषय पर चलने की तकलीफ़ तो नगण्य-मात्र वक्ताओं ने ही उठायी| आयोजकों ने स्तरीय वक्ताओं को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करने का कष्ट उठाने का तो सोचा तक भी नहीं, जबकि कई लोगों को दो-दो तीन-तीन बार बुला लिया| मंच का मज़ाक बनने की हद तो तब हो गयी, जब से ऐसे-ऐसे लोगों को भाषण के लिए बुला लिया गया जो राजस्थानी की कहावत 'काल मरी अर आज भूतणी हुयगी' (राजस्थानी नहीं जानने वालों के लिए इसका हिंदी सार---जो अभी ज्योतिष के क्षेत्र में ढंग से उदित भी नहीं हुआ है/हुई है) आते हैं| अपने प्रचार-पत्र में दूसरे आयोजकों की जम-कर बुराई करने वाले इस आयोजन के आयोजकों ने खुद इस आयोजन में ज्योतिष और समाज का खुल्लम-खुल्ला मज़ाक बनाया| आयोजक महानुभाव मंच से भाषण के लिए 'लिंग और चमड़ी देख कर' बुला रहे थे| अपने आपको 'रसिकानंद प्रभु के अनुयायी' कहने वाले ये आयोजक तो ऐसा लग रहा था मानो खुद को ही 'रसिकानंद' सिद्ध करने पर तुले हुए थे| ये महानुभाव तो 'तल्लीन रसिक भाव' से 'सौंदर्य-पूजन' में में ही मग्न थे| इनकी इसी 'लिंग और चमड़ी देख कर' तथा 'सौंदर्य-पूजन-वृत्ति' के कारण ही सम्मेलन के तीसरे दिन जो एक दृश्य उपस्थित हुआ, वह समस्त ज्योतिष जगत के लिए डूब मरने की बात है| तीसरे दिन भाषणों के क्रम में 'सप्तम आयोजन' के 'अनुभवी' (?) इन आयोजकों ने एक ऐसी रूपसी को आमंत्रित कर लिया, जो अपनी 'विचित्रता' के लिए 'सुविख्यात' है| उसने अपना चमत्कार यहाँ दिखलाया भी| उसने मंच से समस्त ज्योतिष-जगत का अपमान किया और वह भी इस लहजे में कि उसके बाद बोलने के लिए आये देश के वरिष्ठ ज्योतिषी शाजापुर (म.प्र.) के मूर्धन्य विद्वान प. सूर्यप्रकाश त्रिपाठी की आँखों में आँसू आ गये और उनका गला भर आया| वे अपना भाषण वहीं छोड़ कर बैठ गये, मगर न तो आयोजकों को शर्म आयी और न ही उस 'रूपसी' ज्योतिषी (?) को| आयोजकों के पूर्वाग्रह-ग्रस्त रवैये का आलम तो यह था कि वे तीनों ही दिन यह राग आलापते रहे कि लाल किताब बकवास है, रमल बकवास है, टैरो बकवास है| अब ऐसा कर वे किस तरह ज्योतिष का भला कर रहे थे, यह तो वे ही जानें| शायद उन्हें यह पता नहीं है कि ज्योतिष क़ी विधाओं में इनका भी शुमार है| हाँ, एक बात लगे हाथों इसके मंच-सञ्चालन के बारे में भी कर ली जाए| 'मंच-सञ्चालन का स्तर तो किसी चर्चा के भी योग्य नहीं, इतना बुरा था| लगता था कि इन बेचारों ने कभी किसी प्राइमरी स्कूल के कार्यक्रम का मंच-सञ्चालन भी शायद ही किया होगा|
संभवतः अधिकाधिक 'संग्रह' और 'लाभ' क़ी वृत्ति से किये गये इस 'एन जी ओ छाप' आयोजन को ज्योतिषीय आयोजन क़ी बजाय 'दशहरे मेले का तमाशा' बना दिया गया| पहले दिन अनूप जलोटा के भजन और रज्ज़ब अली क़ी ग़ज़ल-गायकी रख ली गयी, तो दूसरे दिन कवि-सम्मेलन| इन कार्यक्रमों के चक्कर में ज्योतिष-सम्मेलन के सत्र शाम को ही समाप्त कर दिए गये, जबकि देर रात तक सत्र चला कर अच्छी और सार्थक ज्योतिषीय चर्चा हो सकती थी (कई आयोजनों में होती भी है)| लगता है कि आयोजकों का मूल उद्देश्य सार्थक, सकारात्मक और विशद ज्योतिषीय चर्चाओं का था ही नहीं| उन्हें तो ज्योतिष सम्मेलन के नाम पर एक 'मजमा' इकठ्ठा करना था और इसके नाम पर कुछ और ही 'संग्रह' व 'लाभ' करना था| संभवतः वे अपने इस 'पवित्र' उद्देश्य में सफल भी हुए होंगे| आयोजक आये हुए ज्योतिषियों का सम्मान करते हैं, ऐसा तो हुआ करता ही है; मगर इस आयोजन में तो खेल ही उलटा हो रहा था| बाहर से आये ज्योतिषियों से आयोजक अपने ही मंच पर ख़ुद का ही सम्मान करवा रहे थे| क्या कमाल है!!!
किसी भी आयोजन के आयोजक उसकी सफलता के लिए पूर्णत: प्रतिबद्ध होते हैं| वे उस आयोजन में अपने आपको झोंक देते हैं| इस आयोजन के आयोजकों का तो हाल ही निराला था| 11 बजे तक तो पहले तो आयोजकों के दर्शन ही नहीं होते थे| उस पर से 'कोढ़ में खाज' यह कि तीसरे दिन एक प्रमुख आयोजक रमेश भोजराज द्विवेदी (जिनके पिता के नाम पर यह सारा तमाशा जुटाया गया था) ख़ुद ही ग़ायब हो गये| सूचना दी गयी कि वे तो रात को ही जोधपुर (अपने घर) चले गये| वाह जनाब!!! क्या खूब!!! आयोजन के अंतिम सत्र में सम्मान-कार्यक्रम में ज़बरदस्त अफ़रा-तफ़री मची रही और वह मज़ाक बन कर रह गया| इससे रुष्ट कई ज्योतिषीय ने सम्मान-पत्र व स्मृति-चिह्न लेने के लिए मंच पर जाना भी उचित नहीं समझा| ......... ऐसे आयोजनों से ज्योतिष का भला किस प्रकार होगा, यह समझ से बिलकुल परे है| यदि किसी को सिर्फ़ और सिर्फ़ धन ही कमाना है तो इसके लिए और भी कई मार्ग है, मगर ज्योतिष सम्मेलन के नाम पर ही तो ऐसा न करें| हाँ, ज्योतिष सम्मेलन से भी कमाई होती है, लोग धन कमाते भी हैं; मगर उस चक्कर में इस सम्मेलन की तरह ज्योतिष की फ़जीहत तो न की जानी चाहिए और न ही कराई जानी चाहिए| ............ कुल मिलकर हम तो यही कहेंगे कि 'भगवान् बचाए ऐसे ज्योतिष सम्मेलन से'|
मित्रो, मिलते हैं अगली पोस्ट के साथ| ............ जय श्री राम|
'आल इंडिया फलौदी एस्ट्रोलोजिकल रिसर्च सोसायटी' (कोटा) के बैनर तले विगत 8-9-10 जून को कोटा के झालावाड रोड़ स्थित आई. एल. टाउनशिप के आई.एल.सभागार में 'सप्तम विश्व ज्योतिष, तंत्र, वास्तु एवं कर्मकांड महासम्मेलन' का आयोजन किया गया| आयोजकों ने बहुत अनुनय-विनय से जिन ज्योतिर्विभूतियों को बुलाया था, उनके सामने इस आयोजन के परखच्चे पहले दिन से भी पहले उड़ने शुरू हो गये| 07 जून की संध्या को पहुँचे ज्योतिषियों ने अपनी अपमानजनक अवस्था का एक सीन कुछ यूं बयान किया कि उस रात के भोजन के लिए आयोजकों ने आयोजन-स्थल कैम्पस में उन्हें किसी की शादी के आयोजन में घुसा दिया| बेचारे ज्योतिषी शादीवालों के यहाँ अपना अपमान सहन करते रहे (राम-राम)| आयोजन की व्यवस्थाओं की बदहाली का आलम तो यह था कि अधिकतर ज्योतिषियों को जानवरों को बाड़े में ठूंसे जाने की तरह एक गंदे-से और घटिया हॉल में डाल दिया गया| कुछ ज्योतिषियों को आस-पास के छात्रावासों के कमरों में ठहराया गया| वहाँ की व्यवस्थाओं का तो कहना भी क्या? पीने का पानी तो छोड़िए, नहाने-शौच के लिए भी पानी को लेकर जान हलक़ में आ गयी| सुनने में आया है कि तीसरे दिन तो पानी के लिए ज्योतिषियों को मोटर वाले कमरे का ताला तोडना पड़ गया| कमरे बिलकुल बदबूदार और कूलर तो ऐसे जैसे चलने का एहसान कर रहे हों| आयोजन जितने दिन का होता है, आयोजक उतने दिनों की व्यवस्थाएँ करने की ज़िम्मेदारी लेते हैं, मगर यहाँ तो बात ही कुछ 'निराली' थी| हमें तीन दिन की व्यवस्थाओं का कहा गया था, मगर तीसरे ही दिन शाम को पीने के पानी के लिए तरस गये थे| और तो और शाम होते-होते आयोजकों का यह 'फ़रमान' भी आ गया कि हम छात्रावास के कमरे खाली कर उस 'दड़बेनुमा हाल' में चले जाएँ| उन कमरों में ठहरे हम सभी ज्योतिषी अपमान का घूँट पी कर तत्काल वह जगह खाली कर वहाँ से निकल लिए, प्रभु से इस प्रार्थना के साथ कि ऐसे आयोजनों और आयोजकों का मुँह फिर कभी नहीं दिखाए|
अब यहाँ के बाद शुरू होता है अगला एपिसोड| लेकिन ज़रा ठहरिए| व्यस्थाओं के इस घटिया स्वरूप के बारे में इन शिकायतों को लेकर अगर आयोजक यह तर्क देने लगें कि भई, हमने तो सम्मेलन में सहभागिता करने वाले ज्योतिषियों से पंजीयन-शुल्क मात्र 250/- ही लिए, कोई बड़ी रक़म नहीं ली; तो यह तर्क बिलकुल बेकार है| पहला कारण तो यह कि ले लेते ज़्यादा पंजीयन-शुल्क, किसने रोका था? लेने वालों को तो ज्योतिषी 1500/- या 2100/- तक पंजीयन-शुल्क भी देते हैं, यहाँ भी दे देते,मगर सुविधाएँ तो ढंग की देते| बंधुआ मज़दूरों की तरह क्यों बर्ताव करते हो? अब दूसरा कारण यह कि आयोजकों को मिलने वाले धन में आयकर-मुक्ति वाला मामला भी है| इस कारण इन्हें अच्छे-खासे धन की प्राप्ति होती है| तब भला घर बुला कर ज्योतिषियों को घटिया व्यवस्थाओं से प्रताड़ित करने का क्या मतलब? आयोजन-स्थल शहर से इतना दूर था कि आम आदमी तो तीन दिन में कोई ग़लती या मजबूरी में ही आया था|
सभागार की मंचीय व्यवस्थाएँ तो बदहाली का पर्याय थीं| कहने को और प्रचारित करने को तो आयोजकों का यह 'सप्तम' (समझे क्या कुछ---'सातवाँ') आयोजन था, मगर हाल देख कर लग रहा था कि कोई नौसिखिया भी इनसे बेहतर कर लेगा| मंच अव्यवस्थाओं में डूबा था| 'सात बार वाले अनुभवी आयोजकों' का हाल तो इतना बुरा था कि एक सत्र में तो सत्र के अध्यक्ष का ही संबोधन सबसे पहले करवा लिया गया| वक्ताओं का कोई श्रेणीकरण नहीं था| जो आ रहा था, न जाने क्या बकवास कर रहा था| अधिकतर वक्ताओं ने या तो अपन गुणगान किया या फिर आयोजकों की चापलूसी| विषय पर चलने की तकलीफ़ तो नगण्य-मात्र वक्ताओं ने ही उठायी| आयोजकों ने स्तरीय वक्ताओं को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करने का कष्ट उठाने का तो सोचा तक भी नहीं, जबकि कई लोगों को दो-दो तीन-तीन बार बुला लिया| मंच का मज़ाक बनने की हद तो तब हो गयी, जब से ऐसे-ऐसे लोगों को भाषण के लिए बुला लिया गया जो राजस्थानी की कहावत 'काल मरी अर आज भूतणी हुयगी' (राजस्थानी नहीं जानने वालों के लिए इसका हिंदी सार---जो अभी ज्योतिष के क्षेत्र में ढंग से उदित भी नहीं हुआ है/हुई है) आते हैं| अपने प्रचार-पत्र में दूसरे आयोजकों की जम-कर बुराई करने वाले इस आयोजन के आयोजकों ने खुद इस आयोजन में ज्योतिष और समाज का खुल्लम-खुल्ला मज़ाक बनाया| आयोजक महानुभाव मंच से भाषण के लिए 'लिंग और चमड़ी देख कर' बुला रहे थे| अपने आपको 'रसिकानंद प्रभु के अनुयायी' कहने वाले ये आयोजक तो ऐसा लग रहा था मानो खुद को ही 'रसिकानंद' सिद्ध करने पर तुले हुए थे| ये महानुभाव तो 'तल्लीन रसिक भाव' से 'सौंदर्य-पूजन' में में ही मग्न थे| इनकी इसी 'लिंग और चमड़ी देख कर' तथा 'सौंदर्य-पूजन-वृत्ति' के कारण ही सम्मेलन के तीसरे दिन जो एक दृश्य उपस्थित हुआ, वह समस्त ज्योतिष जगत के लिए डूब मरने की बात है| तीसरे दिन भाषणों के क्रम में 'सप्तम आयोजन' के 'अनुभवी' (?) इन आयोजकों ने एक ऐसी रूपसी को आमंत्रित कर लिया, जो अपनी 'विचित्रता' के लिए 'सुविख्यात' है| उसने अपना चमत्कार यहाँ दिखलाया भी| उसने मंच से समस्त ज्योतिष-जगत का अपमान किया और वह भी इस लहजे में कि उसके बाद बोलने के लिए आये देश के वरिष्ठ ज्योतिषी शाजापुर (म.प्र.) के मूर्धन्य विद्वान प. सूर्यप्रकाश त्रिपाठी की आँखों में आँसू आ गये और उनका गला भर आया| वे अपना भाषण वहीं छोड़ कर बैठ गये, मगर न तो आयोजकों को शर्म आयी और न ही उस 'रूपसी' ज्योतिषी (?) को| आयोजकों के पूर्वाग्रह-ग्रस्त रवैये का आलम तो यह था कि वे तीनों ही दिन यह राग आलापते रहे कि लाल किताब बकवास है, रमल बकवास है, टैरो बकवास है| अब ऐसा कर वे किस तरह ज्योतिष का भला कर रहे थे, यह तो वे ही जानें| शायद उन्हें यह पता नहीं है कि ज्योतिष क़ी विधाओं में इनका भी शुमार है| हाँ, एक बात लगे हाथों इसके मंच-सञ्चालन के बारे में भी कर ली जाए| 'मंच-सञ्चालन का स्तर तो किसी चर्चा के भी योग्य नहीं, इतना बुरा था| लगता था कि इन बेचारों ने कभी किसी प्राइमरी स्कूल के कार्यक्रम का मंच-सञ्चालन भी शायद ही किया होगा|
संभवतः अधिकाधिक 'संग्रह' और 'लाभ' क़ी वृत्ति से किये गये इस 'एन जी ओ छाप' आयोजन को ज्योतिषीय आयोजन क़ी बजाय 'दशहरे मेले का तमाशा' बना दिया गया| पहले दिन अनूप जलोटा के भजन और रज्ज़ब अली क़ी ग़ज़ल-गायकी रख ली गयी, तो दूसरे दिन कवि-सम्मेलन| इन कार्यक्रमों के चक्कर में ज्योतिष-सम्मेलन के सत्र शाम को ही समाप्त कर दिए गये, जबकि देर रात तक सत्र चला कर अच्छी और सार्थक ज्योतिषीय चर्चा हो सकती थी (कई आयोजनों में होती भी है)| लगता है कि आयोजकों का मूल उद्देश्य सार्थक, सकारात्मक और विशद ज्योतिषीय चर्चाओं का था ही नहीं| उन्हें तो ज्योतिष सम्मेलन के नाम पर एक 'मजमा' इकठ्ठा करना था और इसके नाम पर कुछ और ही 'संग्रह' व 'लाभ' करना था| संभवतः वे अपने इस 'पवित्र' उद्देश्य में सफल भी हुए होंगे| आयोजक आये हुए ज्योतिषियों का सम्मान करते हैं, ऐसा तो हुआ करता ही है; मगर इस आयोजन में तो खेल ही उलटा हो रहा था| बाहर से आये ज्योतिषियों से आयोजक अपने ही मंच पर ख़ुद का ही सम्मान करवा रहे थे| क्या कमाल है!!!
किसी भी आयोजन के आयोजक उसकी सफलता के लिए पूर्णत: प्रतिबद्ध होते हैं| वे उस आयोजन में अपने आपको झोंक देते हैं| इस आयोजन के आयोजकों का तो हाल ही निराला था| 11 बजे तक तो पहले तो आयोजकों के दर्शन ही नहीं होते थे| उस पर से 'कोढ़ में खाज' यह कि तीसरे दिन एक प्रमुख आयोजक रमेश भोजराज द्विवेदी (जिनके पिता के नाम पर यह सारा तमाशा जुटाया गया था) ख़ुद ही ग़ायब हो गये| सूचना दी गयी कि वे तो रात को ही जोधपुर (अपने घर) चले गये| वाह जनाब!!! क्या खूब!!! आयोजन के अंतिम सत्र में सम्मान-कार्यक्रम में ज़बरदस्त अफ़रा-तफ़री मची रही और वह मज़ाक बन कर रह गया| इससे रुष्ट कई ज्योतिषीय ने सम्मान-पत्र व स्मृति-चिह्न लेने के लिए मंच पर जाना भी उचित नहीं समझा| ......... ऐसे आयोजनों से ज्योतिष का भला किस प्रकार होगा, यह समझ से बिलकुल परे है| यदि किसी को सिर्फ़ और सिर्फ़ धन ही कमाना है तो इसके लिए और भी कई मार्ग है, मगर ज्योतिष सम्मेलन के नाम पर ही तो ऐसा न करें| हाँ, ज्योतिष सम्मेलन से भी कमाई होती है, लोग धन कमाते भी हैं; मगर उस चक्कर में इस सम्मेलन की तरह ज्योतिष की फ़जीहत तो न की जानी चाहिए और न ही कराई जानी चाहिए| ............ कुल मिलकर हम तो यही कहेंगे कि 'भगवान् बचाए ऐसे ज्योतिष सम्मेलन से'|
मित्रो, मिलते हैं अगली पोस्ट के साथ| ............ जय श्री राम|
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